रविवार, 26 फ़रवरी 2012

अवकाश

आदरणीय ब्लागर मित्रो,
अस्वस्थ होने के कारण शायद अंतरजाल पर  न आ  पाऊँ  ।  इसलिए कुछ समय के लिए शायद आप से भेंट न हो। स्वास्थ लाभ करके पुनः आपसे सम्पर्क स्थापित करूंगा। तब तक के लिए विदा:)

बुधवार, 22 फ़रवरी 2012

कुछ उजाले, कुछ अँधेरे




कुछ उजाले, कुछ अंधेरे

बैकुंठ नाथ पेशे से वास्तुविद भले ही हों, पर हृदय से एक रचनाकार हैं जिनकी अब तक सात पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें उनके गीतों, कविताओं और कहानियों की अभिव्यक्ति हुई है।  ‘कुछ उजाले, कुछ अँधेरे’ उनका नवीनतम कथा संग्रह है जिसमें इक्कीस कहानियाँ संग्रहित हैं।  इन कहानियों से गुज़रते हुए पाठक को महसूस होगा कि लेखक एक सफल पर्यटक के अलावा पैनी दृष्टि का मालिक भी है।

जैसा कि कहानी संग्रह के शीर्षक से पता चलेगा कि इन कहानियों में जीवन की आशा-निराशा, अमीरी-गरीबी, प्रेम-घृणा जैसी मनोवृत्तियों को कहानीकार ने उजागर किया है।  अधिकतर कहानियों में गरीबी की विवशता और प्रेम के विविध रूपों का चित्रण मिलता है।  

बैकुंठ नाथ की कहानियों में गरीब की विवशता के साथ उसकी आस्था, आशा और आदर्श की झलक भी मिलती है। कहानी ‘तुम बिन को भगवान’ में उस गरीब के चरित्र की झलक मिलती है जो पहले किसी धनवान के यहाँ काम करता था और अब रिक्शा चला रहा है।  जब वह धनवान उसी रिक्शा में चढ़ कर अपने गंतव्य को पहुंचता है तो वह अपने पुराने मालिक को पहचान कर पैसे लेने से इंकार कर देता है, भले ही उसका परिवार एक दिन की रोटी से चूक जाएगा। 
गरीब बच्चे का परिवार भले ही एक कमरे में रहता हो पर जब वह अपनी पुस्तक में डाइनिंग रूम, किचिन, लाइब्रेरी आदि का वर्णन पढ़ता है तो उसे अपने भविष्य के प्रति आशा जागती है और वह सपने देखता है जो शायद कभी पुरे नहीं होंगे।  इसी को कहानीकार ने अपनी कहानी ‘आशा जीवन का सोपान’ में सुंदर ढंग से प्रस्तुत किया है।  बेज़बान, हमसे कुत्ते अच्छे हैं, दीन्हिं लखै न कोय, छाबड़ीवाला, चुपके लागे घाव ऐसी ही कुछ कहानियां हैं जिनमें गरीबी से जुड़ी समस्याओं को कहानीकार ने उजागर किया है।  इनमें एक कहानी ‘गरम कमीज़’ भी है जिसे पढ़कर लगता है कि बैकुंठ नाथ ने इसे गोगोल की कहानी ‘द कोट’ से प्रभावित होकर लिखा है।

प्रेम के विविध रूप पर लिखी कई कहानियाँ इस कृति में मिलेंगी। नैतिकता-अनैतिकता, क्षणिक से लेकर गम्भीर प्रेम, सच्चा प्रेम और दैहिक प्रेम पर लिखी गई कहानियों पर लेखक एक स्थान पर बताते हैं कि "समय परिचय करा देता है।  परिचय मित्रता में बदल जाता है और मित्रता अक्सर प्रेम में  परिवर्तित हो जाती है।  परिचय घटनाओं की देन है- समय की संधि है; मित्रता एक मार्ग है और प्रेम सम्भवतः लक्ष्य।"[विदाई- पृ.१३१]  

‘चारदीवारी’ एक ऐसी कहानी है जिसमें एक ब्याहता किराएदार की दोस्ती मकानमालिक की जवान बेटी से हो जाती है।  बात आगे बढ़ने से पहले उस व्यक्ति को अपने परिवारवालों के पास से पत्र मिलता है कि उसकी जवान लड़की किसी के साथ भाग गई है।  वह पछतावे की आग में जलते हुए उस लड़की को सारी बात बता देता है।  प्रेम का एक वह रूप भी है जो किसी को प्रेमिका की सुंदरता को देख कर आजीवन साथ निभाने के सपने देखता है।  एक कला का विद्यार्थी एक सुंदर सहपाठिनी  के चित्र बनाता रहता है।  उसे एक चित्र पर पुरस्कार भी मिलता है।  वह लड़की उसके पास आती है और उसके अधिक चित्र देखना चाहती है।  लड़का उसे अपने घर ले जाकर कई चित्र बताता है जो उस पर केंद्रित हैं।  लड़की उसके प्रेम से द्रवित हो जाती है और अपने मोजे निकाल कर उसके ‘कोढ’ के निशान बताती है जिसके बाद प्रेमी का प्रेम काफ़ुर हो जाता है।  

रीत गई अँखियां, नदी-हवा-घटा, बीहू गीत, बिदाई आदि कुछ प्रेम कहानियाँ ऐसी भी हैं जिनका निष्कर्ष पाठक पर छोड़ दिया गया है।  दूसरी ओर कुछ ऐसी कहानियाँ  जैसे सिनेमा की बलिवेदी पर, कुआँ और हड़ताल इस संग्रह में मिलेंगी जिनमें व्यक्ति बिना सोचे समझे ही कुछ कर बैठता है- जैसे आवेश में कुएँ में कूद कर प्राण त्याग देना या हड़ताल के समय किसे हानि पहुँचाई जा रही है इस सोच को भी ताक पर रख देना आदि।

इन कहानियों पर अपनी अनुभूति अभिव्यक्त करते हुए कहानीकार बैकुंठ नाथ कहते हैं कि "मैं जब समाज को देखता, परखता, विचारता, दुलारता या नकारता सा समाज के प्रति लिखता हूं... तो मुझे ऐसा लगता है जैसे उजालों और अँधेरों में  खड़ा देखता रह जाता हूँ।  मेरे सामने विरह-मिलन समान रूप धारण कर लेते हैं।  दिवा-निशा में कुछ भेद नहीं रहता।  ... न जाने कैसे मैं उजालों को अनुभव करने लगता हूँ, अँधेरों को तराशने लगता हूँ।  कुछ उजालों को पकड़े, कुछ अंधेरों को थामे मैं मूक सा खड़ा रह जाता हूँ।"  इन्हीं कुछ अनुभवों को तराश कर लिखी गई कहानियों से गुज़रते हुए पाठक कहीं उजालों से चकाचौंध हो जाएगा तो कहीं अंधेरों में उजाले की तलाश करेगा!


पुस्तक परिचय:
पुस्तक का नाम: कुछ उजले कुछ अँधेरे
लेखक: बैकुंठ नाथ
प्रकाशक: सिमिरन प्रकाशन
ए-१, परिक्रमा फ़्लैट्स
बोपल, अमदाबाद-३८००५८


रविवार, 19 फ़रवरी 2012

एक खयाल


बड़ा

सदियों पहले कबीरदास का कहा दोहा आज सुबह से मेरे मस्तिष्क में घूम रहा था तो सोचा कि इसे ही लेखन का विषय क्यों न बनाया जाय।  कबीर का वह दोहा था-

बडा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड खजूर
पथिक को छाया नहीं फल लागे अति दूर॥

यह सही है कि बड़ा होने का मतलब होता है नम्र और विनय से भरा व्यक्ति जो उस पेड की तरह होता है जिस पर फल लदे हैं जिसके कारण वह झुक गया है।  बड़ा होना भी तीन प्रकार का होता है। एक बड़ा तो वह जो जन्म से होता है, दूसरा अपनी मेहनत से बड़ा बनता है और तीसरा वह जिस पर बड़प्पन लाद दिया जाता है।  

अपने परिवार में मैं तो सब से छोटा हूँ।  बडे भाई तो बडे होते ही हैं।  बडे होने के नाते उन पर परिवार की सारी ज़िम्मेदारियां भी थीं।  पैदाइशी बड़े होने के कुछ लाभ हैं तो कुछ हानियां भी हैं।  बड़े होने के नाते वे अपने छोटों पर अपना अधिकार जमा देते हैं और हुकुम चलाते हैं तो उनके नाज़-नखरे भी उठाने पड़ते हैं।  उनके किसी चीज़ की छोटे ने मांग की तो माँ फ़ौरन कहेगा- दे दे बेटा, तेरा छोटा भाई है।  छोटों को तो बड़ों की बात सुनना, मानना हमारे संस्कार का हिस्सा भी है और छोटे तो आज्ञा का पालन करने लिए होते ही हैं। परिवार में बडे होने के नुकसान भी हैं जैसे घर-परिवार की चिंता करो, खुद न खाकर भी प्ररिवार का पोषण करो आदि। अब जन्म से बडे हुए तो ये ज़िम्मेदारियां तो निभानी भी पड़ेंगी ही।

जन्म से बडे कुछ वो सौभाग्यशाली होते हैं जो बड़े घर में पैदा होते हैं।  वे ठाठ से जीते हैं और बडे होने के सारे लाभ उठाते हैं।  बडे घर में जन्मे छोटे भी बडे लोगों में ही गिने जाते हैं।  इसलिए ऐसे लोगों के लिए पहले या बाद में पैदा होना कोई मायने नहीं रखता।  उस परिवार के सभी लोग बडे होते हैं।

दूसरी श्रेणी के बड़े वो होते हैं जो अपने प्ररिश्रम से बडे बन जाते हैं।  एक गरीब परिवार में पैदा होनेवाला अपने परिश्रम से सम्पन्न होने और बुद्धि-कौशल से समाज में ऊँचा स्थान पाने वाले लोगों के कई किस्से मशहूर हैं ही।  ऐसे लोगों को ईश्वर का विशेष आशीर्वाद होता है और उनके हाथ में ‘मिदास टच’ होता है।  वे मिट्टी को छू लें तो सोना बन जाय!  अपने बुद्धि और कौशल से ऐसे लोग समाज में अपना स्थान बनाते है और बड़े कहलाते हैं।  

ऐसे बडों में भी दो प्रकार की प्रवृत्ति देखी जा सकती है।  कुछ बडे लोग अपने अतीत को नहीं भूलते और विनम्र होते है।  उनमें अभिमान नाममात्र को नहीं होता।  इसलिए समाज में उनका सच्चे मन से सभी सम्मान करते हैं।  दूसरी प्रवृत्ति के बडे लोग वे होते हैं जो शिखर पर चढ़ने के उसी सीड़ी को लात मार देते हैं जिस पर चढ़कर वे बडे बने रहना चाहते हैं।  वे अपने अतीत को भूलना चाहते हैं और यदि कोई उनके अतीत को याद दिलाए तो नाराज़ भी हो जाते हैं।  इन्हें लोग सच्चे मन से सम्मान नहीं देते;  भले ही सामने जी-हुज़ूरी कर लें पर पीठ-पीछे उन्हें ‘नया रईस’ कहेंगे।  ऐसे बड़े लोगों के इर्दगिर्द केवल चापलूस ही लिपटे रहते हैं।  कभी दुर्भाग्य से जीवन में वे गिर पडे तो उनको कोई साथी नहीं दिखाई देगा।  सभी उस पेड के परिंदों की तरह उड़ जाएंगे जो सूख गया है।

तीसरी श्रेणी के बड़े वो होते हैं जिन पर बड़प्पन लाद दिया जाता है।  इस श्रेणी में धनवान भी हो सकते हैं या गुणवान भी हो सकते हैं या फिर मेरी तरह के औसत मध्यवर्गीय भी हो सकते हैं जिन्हें कभी-कभी समय एक ऐसे मुकाम पर ला खड़ा कर देता है जब वे अपने पर बड़प्पन लदने का भार महसूस करते हैं।  हां, मैं अपने आप को उसी श्रेणी में पाता हूँ!

मैं एक मामूली व्यक्ति हूँ जिसे अपनी औकात का पता है।  मैं अपनी क्षमता को अच्छी तरह से परक चुका हूँ और एक कार्यकर्ता की तरह कुछ संस्थाओं से जुड़ा हूँ।  जब मुझे किसी पद को स्वीकार करने के लिए कहा जाता है तो मैं नकार देता हूँ। फिर भी जब किसी संस्था में कोई पद या किसी मंच पर आसन ग्रहण करने के लिए कहा जाता है तो संकोच से भर जाता हूँ।  कुछ ऐसे अवसर आते हैं जब मुझे स्वीकार करना पड़ता है तो मुझे लगता है कि मैं उस तीसरी श्रेणी का बड़ा हूँ जिस पर बडप्पन लाद दिया जाता है।  इसे मैं अपने प्रियजनों का प्रेम ही समझता हूँ, वर्ना मैं क्या और मेरी औकात क्या।  क्या पिद्दी, क्या पिद्दी का शोरबा! मुझे पता है कि बड़ा केवल पद से नहीं हो जाता बल्कि अपने कौशल से होता है।  ऐसे में मुझे डॉ. शैलेंद्रनाथ श्रीवास्तव की यह कविता [बहुत दिनों के बाद] बार बार याद आती है--

बड़ा को क्यों बड़ा कहते हैं, ठीक से समझा करो
चाहते खुद बड़ा बनना, उड़द-सा भीगा करो
और फिर सिल पर पिसो, खा चोट लोढे की
कड़ी देह उसकी तेल में है, खौलती चूल्हे चढ़ी।

ताप इसका जज़्ब कर, फिर बिन जले, पकना पड़ेगा
और तब ठंडे दही में देर तक गलना पड़ेगा
जो न इतना सह सको तो बड़े का मत नाम लो
है अगर पाना बड़प्पन, उचित उसका दाम दो!